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राष्ट्र निर्माण की बुनियाद हैं मजदूर

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(प्रवीण कक्कड़) दुनिया का बहुत लंबा इतिहास देवताओं, राजाओं, सेनापतियों और सामंतों के बारे में ज्यादा से ज्यादा वर्णन करते हुए लिखा गया है। मानव सभ्यता के 5000 वर्ष के इतिहास को उठाकर देखें तो शुरू के 4700 साल तो ऐसे भी थे जिनमें मजदूर के लिए कहीं कोई उल्लेखनीय स्थान था ही नहीं। रोमन सभ्यता में अगर वे दास थे तो अरब और भारत जैसे देशों में उनकी स्थिति सेवक से अधिक की नहीं थी। कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि मजदूरों के नाम पर भी कोई दिवस मनाया जा सकता है या उनके सुख-दुख और अधिकारों के बारे में चर्चा की जा सकती है। राजशाही के पतन और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की पूरी बात और संवाद के रूप में परिवर्तित होने के बाद ही दुनिया में मजदूरों के ऊपर होने वाले शोषण और उनके अधिकारों की चर्चा विधिवत शुरू हुई। अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस मनाने की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है, जब अमेरिका की मज़दूर यूनियनों नें काम का समय 8 घंटे से ज़्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। मई दिवस की दूसरी ताकत रूस में कोई बोल्शेविक क्रांति के बाद मिली जो कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों पर मजदूरों की सरकार मानी गई। भारत में सबस

सत्य के साथ सामाजिक दायित्व का निर्वाह भी करती है पत्रकारिता

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(प्रवीण कक्कड़) एक जमाने में कहा जाता था कि भारतीय  समाज में 3 सी सबसे ज्यादा प्रचलित हैं। सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम। लेकिन आज के सार्वजनिक संवाद को देखें तो इन तीनों से ज्यादा लोकप्रिय अगर कोई चीज है तो वह है पत्रकारिता। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल अपने इन तीनों स्वरूपों में पत्रकारिता 24 घंटे सूचनाओं की बाढ़ समाज तक पहुंचाती है और लोगों की राय बनाने में खासी मदद करती है। जैसे-जैसे समाज जटिल होता जाता है, वैसे वैसे लोगों के बीच सीधा संवाद कम होता जाता है और वे सार्वजनिक या उपयोगी सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर होते जाते हैं। उनके पास जो सूचनाएं ज्यादा संख्या में पहुंचती हैं, लोगों को लगता है कि वही घटनाएं देश और समाज में बड़ी संख्या में हो रही हैं। जो सूचनाएं मीडिया से छूट जाती हैं उन पर समाज का ध्यान भी कम जाता है। आजकल महत्व इस बात का नहीं है कि घटना कितनी महत्वपूर्ण है, महत्व इस बात का हो गया है कि उस घटना को मीडिया ने महत्वपूर्ण समझा या नहीं। जब मीडिया पर इतना ज्यादा एतबार है तो मीडिया की जिम्मेदारी भी पहले से कहीं अधिक है। आप सब को अलग से यह बताने की जरूरत नहीं है कि कार्यपाल

पुलिस सुधार-2 : समाज के साथ संवेदनशील हो पुलिस का व्यवहार

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( प्रवीण कक्कड़ ) इस लेख के पहले भाग में हमने पुलिस सुधार के उन बिंदुओं पर चर्चा की थी जिनको अपनाकर पुलिसकर्मियों की समस्याएं दूर की जा सकती हैं। उनका और उनके बच्चों का भविष्य बेहतर बनाया जा सकता है। उन्हें वे बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं जिनसे उनमें काम करने का उत्साह आए और वे मानवीय गरिमा के साथ अपनी ड्यूटी का निर्वहन कर सकें। लेख के इस भाग में हम चर्चा करेंगे कि पुलिस के व्यवहार में और कार्यप्रणाली में वे कौन से बदलाव आने चाहिए जिससे लोग जनता को वाकई अपना मित्र और हितैषी समझें। अपराधी और असामाजिक तत्व पुलिस से डरें। जबकि आम आदमी पुलिस की उपस्थिति में खुद को निर्भय महसूस करे। सबसे पहली बात तो यह है कि पुलिस की ट्रेनिंग आज भी कुछ ना कुछ ब्रिटिश जमाने की चली आ रही है। ब्रिटिश शासन में पुलिस की जिम्मेदारी अपराधियों पर नकेल कसने के साथ ही जनता को भयभीत रखने की भी होती थी। उस समय जनता को डरा कर रखना इसलिए जरूरी था क्योंकि उसके मन में किसी भी तरह विदेशी शासन से विद्रोह करने की मानसिकता ना आ सके। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि उस जमाने में खाकी का इतना भय हुआ करता था कि अगर

पुलिस सुधार: यानी एक जिम्मेदार, सक्षम और मानवीय पुलिस प्रणाली

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( प्रवीण कक्कड़ ) राज्य सरकार की जितनी सेवाएं होती हैं , उनमें पुलिस का एक खास महत्व है। हम चाहें या ना चाहें पुलिस हमारे सामाजिक जीवन के हर हिस्से से जुड़ी है। स्कूल की परीक्षाएं कराने से लेकर राजनैतिक समारोह तक सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस के पास ही है। परिवार का छोटा सा झगड़ा हो या बदमाशों का गैंगवार , मामला निपटाने की जिम्मेदारी अंततः पुलिस पर आती है। समाज में जिस तरह से छोटी-छोटी बातों को लेकर लोग ज्यादा उग्र होने लगे हैं , उसे देखते हुए पुलिस की भूमिका लगातार बढ़ती जा रही है। विशेषज्ञ इन समस्याओं और उनके प्रसार से लंबे समय से अवगत हैं। इसीलिए पुलिस सुधार की बात एक अरसे से चल रही है। पुलिस सुधार का मतलब क्या है ? क्या पुलिस वालों के काम के तरीके को बदल देना ? लेकिन इसमें कितना बदलाव आ सकता है , क्योंकि उनका मूल काम तो अपराध नियंत्रण का रहेगा ही। इसका मतलब है कि पुलिस सुधार का अर्थ कहीं व्यापक है। सबसे पहले तो यह देखना होगा कि पुलिस के ऊपर कहीं काम का ज्यादा बोझ तो नहीं है। राष्ट्रीय परिदृश्य पर गौर करें तो राज्य पुलिस बलों में 24% रिक्तियां हैं (लगभग 5.5 लाख रिक्तियां)। यानी