जननायक टंट्या भील: साहस, स्वाभिमान और न्याय का चिरंजीव संदेश
4 दिसंबर बलिदान दिवस पर विशेष लेख (प्रवीण कक्कड़) भारत के स्वाधीनता संग्राम में अनगिनत नाम हैं, पर कुछ ऐसे भी हैं जिनकी गाथा जंगलों की ख़ामोशी में जन्मी और जनजातीय समाज के हृदयों में अमर हो गई। मालवा–निमाड़ की धरती पर जन्मे जननायक टंट्या भील, जिन्हें आम जनता प्रेम से “टंट्या मामा” कहती है, ऐसे ही अमर नायकों की श्रेणी में आते हैं। वे केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि आदिवासी स्वाभिमान, न्याय, नेतृत्व और सामाजिक अस्मिता की जीवित चेतना थे। इसी सप्ताह उनका बलिदान दिवस है। आज भी मालवा की मिट्टी, निमाड़ के जंगल, सतपुड़ा की वादियाँ और दक्कन की पहाड़ियाँ टंट्या मामा के कदमों की प्रतिध्वनि का एहसास कराती हैं। 4 दिसंबर, जो मध्य प्रदेश में बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है, केवल एक ऐतिहासिक तिथि नहीं, बल्कि साहस, नेतृत्व, संघर्ष और आत्मगौरव का पर्व है। अन्याय के विरुद्ध उठी एक आवाज़ टंट्या मामा का जीवन उस दौर में शुरू हुआ जब भील जनजाति पर अंग्रेजी हुकूमत, साहूकारों और जमींदारों के अत्याचार गहराते जा रहे थे। जंगलों पर लगने वाले प्रतिबंध, पारंपरिक आजीविका पर दबाव, भूमि अधिकारों का हनन और प्रशासनिक क...