संस्कृति, संघर्ष और समाधान की आदिवासी गाथा

विश्व आदिवासी दिवस :  आंखों से गुजरी 40  वर्षों की तस्वीर

(प्रवीण कक्कड़)

"जब आप किसी आदिवासी समूह को देखते हैं, तो आप सिर्फ कुछ लोगों को नहीं, बल्कि हज़ारों साल पुरानी प्रकृति की आत्मा को साक्षात देखते हैं। उन्हें समझने के लिए आँखें नहीं, हृदय की दृष्टि चाहिए।"

आज जब पूरा विश्व आदिवासी दिवस मना रहा है, तो मेरा मन 40 साल पीछे, उस दौर में लौट जाता है, जब मैंने एक युवा सब-इंस्पेक्टर के रूप में अलीराजपुर की धरती पर पहला कदम रखा था। तब अलीराजपुर, झाबुआ जिले का एक हिस्सा था और यह क्षेत्र एशिया के सबसे अधिक अपराध प्रभावित क्षेत्रों में गिना जाता था। वर्दी की अपनी चुनौतियाँ थीं, लेकिन उस दुर्गम इलाके ने मुझे जो सिखाया, वह किसी किताब या ट्रेनिंग में मिलना असंभव था।

 वो दौर: जब जंगल का न्याय कानून पर भारी था 

मैंने अपनी आँखों से देखा कि अपराध की जड़ें समाज की गहराइयों में कैसे पनपती हैं। वहां अपराध महज़ एक घटना नहीं, बल्कि अभाव, अशिक्षा और अवसरों की कमी से उपजा एक परिणाम था।

 *शिक्षा और स्वास्थ्य?* मीलों तक कोई स्कूल या अस्पताल नहीं था। बीमारी का मतलब या तो स्थानीय जड़ी-बूटियों पर निर्भरता थी या फिर नियति के भरोसे रहना।

 *कानून का डर?* लोगों के लिए जंगल का न्याय और गाँव के पंच का फैसला ही अंतिम सत्य था। थाने और अदालतें उनकी दुनिया से बहुत दूर थीं। जहां थाने का दरवाज़ा भी उतना ही दूर था, जितना शहर का सपना।

 *महिलाओं का संघर्ष:* वे घर, खेत और परिवार की धुरी थीं, लेकिन आर्थिक रूप से पूरी तरह निर्भर और असुरक्षित।

लेकिन इस कठोर कैनवास पर मैंने संस्कृति के सबसे जीवंत रंग भी देखे। मैंने आदिवासियों के हृदय की सरलता, प्रकृति के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा और उनकी कला की गहराई को महसूस किया। होली से पहले जब भगोरिया का मेला सजता था, तो हवा में घुले मांदल के संगीत और युवाओं के उल्लास को देखकर लगता था मानो जीवन का उत्सव इससे बड़ा नहीं हो सकता। मैंने देखा कि वे पेड़ों को जीवित आत्मा, नदियों को माँ और पहाड़ों को देवता क्यों मानते हैं। उनकी जीवनशैली पिछड़ी नहीं, बल्कि आज की दुनिया के लिए 'सस्टेनेबल लिविंग' का सबसे बड़ा उदाहरण थी।

सफर बदला, नज़रिया बदला: वर्दी से लेकर नीति-निर्माण तक 

समय के साथ मेरी भूमिका बदली। पुलिस अधिकारी के रूप में मैंने ज़मीन पर समस्याओं को समझा, तो बाद में केंद्रीय मंत्री और फिर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी (OSD) के रूप में मुझे उन समस्याओं के समाधान के लिए नीतियां बनते और लागू होते देखने का अवसर मिला।

यह एक अद्भुत अनुभव था। दिल्ली और भोपाल के दफ्तरों में जब आदिवासियों के विकास की फाइलें चलती थीं, तो मेरे सामने झाबुआ-अलीराजपुर के वो चेहरे घूम जाते थे। मैं जानता था कि एक सड़क का बनना सिर्फ आवागमन नहीं, बल्कि किसी बीमार बच्चे के लिए अस्पताल तक पहुँचने की उम्मीद है। एक स्कूल का खुलना सिर्फ एक इमारत नहीं, बल्कि पीढ़ियों की गरीबी से मुक्ति का दरवाज़ा है।


40 वर्षों में मैंने अपनी आँखों के सामने समाज को बदलते देखा

 *कल:* जहाँ स्कूल नहीं थे, आज वहाँ आवासीय विद्यालय हैं, जहाँ आदिवासी बच्चे पढ़-लिखकर आगे बढ़ रहे हैं।

 *कल:* जो महिलाएँ केवल घर तक सीमित थीं, आज वे स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से आत्मनिर्भर बनकर परिवार चला रही हैं।

 *कल:* जो युवा दिशाहीन होकर अपराध की राह पकड़ते थे, आज उन्हीं में से कोई शिक्षक बन रहा है, कोई सेना में भर्ती हो रहा है तो कोई पुलिस अधिकारी बनकर समाज की सेवा कर रहा है।

यह बदलाव सरकारों और समाज के सम्मिलित प्रयासों का ही नतीजा है। प्रयास हुए हैं, और उनके परिणाम भी दिख रहे हैं, लेकिन हमें यह स्वीकार करना होगा कि अभी मंज़िल दूर है।

 चुनौतियाँ आज भी हैं: अब हमें क्या करना है?

आज भी जब मैं उन क्षेत्रों में जाता हूँ, तो देखता हूँ कि भौगोलिक कठिनाइयाँ, कुछ युवाओं में नशे की बढ़ती लत और बेहतर अवसरों के लिए होने वाला पलायन बड़ी चुनौतियाँ हैं। कभी-कभी लगता है कि विकास की कुछ योजनाएँ उदासीनता और अन्य कारणों से उन तक नहीं पहुँच पातीं, जिनके लिए वे बनी हैं। सबसे बड़ा खतरा उनकी संस्कृति के क्षरण का है, जो बाहरी चमक-दमक में अपनी पहचान खो रही है।

यहाँ किसी को दोष देने का समय नहीं है। अब हमें एक साझा जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ना होगा।

 समाज के रूप में: हमें आदिवासी समाज को 'पिछड़ा' या 'गरीब' समझकर सहानुभूति दिखाने की बजाय, उनके ज्ञान और हुनर का सम्मान करना होगा। उनकी कला, उनके हस्तशिल्प को बाज़ार देकर हम उन्हें आत्मनिर्भर बना सकते हैं।

 सरकार के स्तर पर: योजनाओं को फाइलों से निकालकर ज़मीन पर प्रभावी ढंग से लागू करना होगा। हमें सुनिश्चित करना होगा कि जल, जंगल और ज़मीन पर उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा हो। युवाओं के लिए पारंपरिक कलाओं के साथ-साथ आधुनिक कौशल विकास और खेल-कूद के बेहतरीन अवसर बनाने होंगे।

 यह उत्सव नहीं, एक संकल्प है

विश्व आदिवासी दिवस मेरे लिए केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि मेरे 4 दशक के अनुभवों का निचोड़ है। यह एक संकल्प लेने का दिन है कि हम आदिवासी समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेंगे। उनकी संस्कृति बचे भी, बढ़े भी और आने वाली पीढ़ियों को दिशा भी दे।

क्योंकि सच तो यह है कि आदिवासी समाज को सशक्त करना, केवल एक समुदाय का विकास नहीं है, यह भारत की आत्मा को सींचना है।

यह दिन सिर्फ आदिवासी समाज के लिए नहीं, हर उस व्यक्ति के लिए है जो प्रकृति, परंपरा और प्रगति के बीच संतुलन चाहता है।

हमने एक अच्छी शुरुआत की है, पर अभी इस यज्ञ में बहुत कुछ करना बाकी है। आइए, हम सब मिलकर इस यज्ञ को पूरा करें।

टिप्पणियाँ

  1. This write-up made me nostalgic. No doubt there is development, yet things are to be done. Making a balance between culture and progress is a challenging task. Still, change is a principle of nature. Well written. Congratulations sir💐

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  2. बहुत अच्छा विश्लेषण किया आपने प्रवीण भाई साब l

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